लिबरल लोगों का नया प्रपंच छपा है हिन्दुस्तान टाइम्स में कि मसूद अज़हर को भारत की ओर सोचता भी नहीं अगर बाबरी मस्जिद को नहीं तोड़ा जाता।
आ हा हा! केतना नोबल थॉट है। मसूद अज़हर तो बेचारा कितना सहृदय आदमी था, अपने काम से मतलब रख रहा था। दो बम इधर मारा, दो उधर… अपनी दिनचर्या थी।उसी तरह अब लेख आएगा कि याकूब मेमन, दाऊद इब्राहिम, टाइगर मेमन आदि तो इन्सानियत के रहनुमा थे।
वो तो बाबरी मस्जिद गिरा दी तो मजबूरी में बेचारे आतंकी बन गए जिनकी शहादत के जनाज़े में टोपियाँ लगाकर कुछ हजार लोग गए थे।
भारत का, और आतंक का, इतिहास बाबरी मस्जिद के गिरने से ही शुरू होता है। और चूँकि बाबरी मस्जिद कुछ महामूर्खों ने गिरा दी तो दूसरे धर्म के महामूर्खों ने कुछ एक जगह बम-वम मार दिया… इतनी छोटी सी बात पर बताइए भला याकूब मेमन को फाँसी दे दी! इतनी छोटी सी बात पर आप मसूद, हाफ़िज़ जैसे इस्लाम के शांतिदूतों को आप ब्लैकलिस्ट करवाने पर तुले हुए हैं!
लानत है! एक मुसलमान अपनी मस्जिद के गिरने का बदला क्या एक दो हाइजैकिंग, संसद पर बम मारकर, बंबई में तीन सौ लोगों को उड़ाकर नहीं ले सकता!
मैं तो कहता हूँ इन शांतिदूतों के स्मारक बनें और हर भारतीय ये याद रखे कि अगर एक मस्जिद के टूटने पर सारे आतंक जायज़ हैं तो सोचो कि कुछ हिंदू पगलाकर चालीस हजार मंदिरों के टूटने का बदला लेने के लिए शांतिदूत बन गए तो क्या होगा?
ऐसी पत्रकारिता और ऐसे बेगैरत, महामूर्ख मुसलमानों को शांतिदूत बनाना बंद कीजिए। चाइनीज़ यिन-यैंग तो जानते ही होंगे आप कि हर अच्छी चीज़ में थोड़ी बुराई, और हर बुरी चीज़ में थोड़ी अच्छाई का स्कोप होता है।
बम बनाना, फोड़ना सबको आता है। ऐसी पत्रकारिता से आतंकियों को लिजिटिमेसी और जस्टिफाइ करना बंद कीजिए। लोगों को मारना किसी भी तरह से जायज़ नहीं है। पूर्णविराम।