बदायूँ कांड (बलात्कार कांड कहना शायद अब तर्कसंगत नहीं है) में नया मोड़ आ गया है जब सीबीआई ने लड़कियों के शवों को निकालने की बात कहीं ताकि दोबारा पोस्टमाॅर्टम हो सके। वजह ये है कि फ़ोरेंसिक रिपोर्ट में एक वाक्यांश आया है, ‘सजेस्टिव आॅफ रेप’ अर्थात् बलात्कार की ओर संकेत।
ये वाक्यांश मेडिकल ज्यूरिसप्रूडेंस में उपयोग नहीं होता यानि की इसका कोई मतलब नहीं है। सीबीआई का कहना है कि परिवार वालों की तरफ़ से कोर्ट में गए गवाहों के बैंक अकाउंट में बहुत पैसा जमा किया गया है। गवाहों के पाॅलीग्राफ (झूठ-सच पकड़ने वाला टेस्ट) टेस्ट में कई असामानताएँ हैं। साथ ही एजेंसी ने यह भी कहा कि परिवार वालों की दलीलों में भी पहले और अब में बहुत फ़र्क़ है।
परिवार वाले अब कह रहे हैं कि सीबीआई उन्हें फँसाना चाह रही है। सीबीआई किसी को क्यों फँसाना चाहेगी ये भगवान जानें पर तथ्यावलोकन और सामाजिक परिस्थितियों को देखते हुए ऐसा प्रतीत होता है कि शायद ये मामला ‘आॅनर किलिंग’ का हो सकता है।
मसला अटकता है कि क्या उन लड़कियों का कुछ भी भला हो पाएगा मरने के बाद भी? ये तो तय है की उनकी मौत हुई। और मौत भयावह हुई है। चाहे बलात्कार करके मारा गया हो या फिर प्रेम के चक्कर में भाई-बाप ने ऐसा किया हो।
बात है कि ‘आॅनर’ या ‘टोपी’ के चक्कर में लोग कहाँ तक चले जाते हैं और लड़कियाँ पृथ्वी के कितने परत नीचे जीवन जिए ताकि वो सुरक्षित रहे?
काफ़ी हैरानी होगी आपको ये जानकर की अच्छे-खासे क़स्बों में, जहाँ पढ़ाई लिखाई की उत्तम व्यवस्था है, पीढ़ी दर पीढ़ी लोग आईएएस अफ़सर हो रहे हैं वहाँ भी ‘आॅनर’ नाम के मानसिक रोग ने सबको जकड़ा हुआ है। पूरा का पूरा गाँव सामूहिक सहमति देता है इस कुकृत्य में और कई बार ना तो कोई रिपोर्ट आती है, ना ही लाश मिलती है।
सब ग़ायब हो जाता है पंच तत्व में, क़ब्र की मिट्टी में या पटना की गङ्गा में फेंकी और बनारस में तैरती लाश में जिसका कुछ अंश मिट्टी खा लेती है, कुछ मछलियाँ, कुछ पानी, कुछ आग।